अध्यात्म

गुण और सुन्दरता में अंतर करने के बारे में आचार्य चाणक्य ने कही है ये ख़ास बातें, जानें क्या है!

बहुत पहले की बात है। उस समय चन्द्रगुप्त मौर्य का शासन था। उनके मंत्री आचार्य चाणक्य हुआ करते थे। चन्द्रगुप्त मौर्य देखने में अति सुन्दर थे, इसके विपरीत आचार्य चाणक्य देखने में काले और कुरूप थे। एक बार दोनों में नीति को लेकर बहस छिड़ गयी। आचार्य चाणक्य के किसी भी प्रश्न का सही उत्तर चन्द्रगुप्त नहीं दे पा रहे थे। यह देखकर चन्द्रगुप्त ने बात बदलते हुए उनसे कहा कि हमारा पूरा राज्य आपकी विद्वता के आगे झुका हुआ है। अगर आप ज्ञान के साथ-साथ सुन्दर भी होते तो पूरी दुनिया में आपके नाम का डंका बजता।

चन्द्रगुप्त मौर्य पीते थे स्वर्ण पात्र में जल:

चाणक्य को यह समझते देर नहीं लगा कि चन्द्रगुप्त मौर्य को अपनी सुन्दरता के ऊपर गुमान हो गया है। चाणक्य ने उनको तुरंत जवाब देना जरूरी नहीं समझा। इसके लिए उन्होंने इंतज़ार करने के बारे में सोचा। चूंकि चन्द्रगुप्त राजा थे, इसलिए उन्हें पीने के लिए पानी हमेशा स्वर्ण पात्र में दिया जाता था। चाणक्य ने एक बार उन्हें समझाने के लिए सेवक को पानी लाने के लिए कहा। उन्होंने उससे ये कहा कि सोने के पात्र में पानी लाये और इसके साथ ही वह एक मिट्टी के पात्र में भी पानी लाये।

भूल से मिट्टी के पात्र में रखा जल पिला दिया चन्द्रगुप्त को:

सेवक दोनों पात्रों में पानी भरकर लाया और उसे चौकी पर रख दिया। थोड़ी देर बाद चन्द्रगुप्त को बड़ी जोर की प्यास लगी तो चाणक्य ने उनकी तरफ मिट्टी वाला पात्र आगे कर दिया। पानी पीकर अपनी प्यास बुझाने के बाद चन्द्रगुप्त मौर्य ने चाणक्य से पूछा कि आज पानी का स्वाद बदला-बदला लग रहा था। इसके जवाब में चाणक्य ने कहा कि मुझसे भूल हो गयी। गलती से मिट्टी वाले पात्र का पानी आपको पिला दिया मैंने। इसके बाद चाणक्य ने तुरंत स्वर्ण पात्र का जल उनकी तरफ बढ़ाया। चन्द्रगुप्त ने उसका जल भी पिया।

सुन्दरता किसी को नहीं बनाती ज्ञानी और विद्वान:

अब चाणक्य ने उनसे पूछा की इन दोनों में से किसका जल स्वादिष्ट था? यह सुनकर चन्द्रगुप्त ने कहा कि मिट्टी वाले पात्र का जल बहुत ही शीतल और मीठा था। आगे से मुझे इसी पात्र का जल पीने के लिए दिया जाए। यह सुनने के बाद चाणक्य ने तुरंत चन्द्रगुप्त से कहा कि, “महाराज जिस प्रकार से किसी पात्र की सुन्दरता जल को शीतल और मीठा नहीं बनाती है, वैसे ही शरीर की सुन्दरता किसी को ज्ञानी और विद्वान नहीं बनाती है। किसी के रूप से उसके ज्ञान का आकलन करना बिलकुल भी ठीक नहीं है”। चन्द्रगुप्त समझ चुके थे कि चाणक्य उन्हें क्या समझाने की कोशिश कर रहे हैं। उन्होंने अपनी गलती स्वीकारते हुए उनसे माफी मांगी।

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