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‘फैज’ विशेष- मुझसे पहली सी मुहब्बत मेरे महबूब ना मांग…..

भारतीय उपमहाद्वीप के एक विख्यात पंजाबी शायर फैज थे और उन्हें अपनी रचनाओं में रसिक इंकलाब और रुमानी के मेल की वजह से जाना जाता है। फैज की रचनाओं पर कम्यूनिस्ट होने और इस्लाम से इतर रहने के आरोप भी लगे, लेकिन उनकी रचनाओं में गैर इस्लामी रंग नहीं मिलते। जेल में रहने के दौरान उनकी कविता जिंदानामा को बहुत पसंद किया गया। उनकी लिखी कुछ पंक्तियां अब भारत पाकिस्तान की आम भाषा का हिस्सा बन चुकी हैं। आज ही के दिन 1984 में लाहौर में उनका निधन हुआ था। उनके पुण्यतिथि पर आपको बताते हैं उनसे जुड़े कुछ किस्से और उनकी कुछ खूबसूरत रचनाएं।

 रचनाओं में नहीं थी बंदिशे

फैज का जन्म 13 फरवरी 1911 के सियालकोट पाकिस्तान में जन्म हुआ था। वह कुछ वक्त तक दिल्ली में थे और अमृतसर के क़ॉलेज में पढ़ाया भी, इसके बाद वह पाकिस्तान चले गए। उन्होंने एक रुसी महिला एलिस फैज के साथ शादी करने के बाद 1941 में वह कुछ समय तक दिल्ली में थे। वह एक ऐसे रचनाकार था जिसे मुल्क की सरहदों का तो पता था, लेकिन अपने मन में उन्होंने मुल्कों के बीच कभी लकीर नहीं खीचीं। यही वजह थी की उनकी रचनाओं में कभी बंदिशे नहीं दिखी।

क्यों खास है फैज का नाम

फैज ने आधुनिक उर्दू शायरी को एक नई ऊंचाई दी। साहिर , कैफा फिराक उनके समकालीन शायर थे। उन्होने बहुत सी रचनाएं और कविता लिखी थी लेकिन जो सबसे ज्यादा जो लोकप्रिय हुईं वह थी दस्त ए सबा और जिन्दा नामा। फैज सिर्फ अपनी शायरी ही नहीं बल्कि अपने व्यक्तित्व के लिए भी जाने जाते हैं।वह एक एक्टिविस्ट थे, फौजी थे, प्राध्यापक थे और संपादक भी रहे। उनकी रचना में सियासत औऱ मोहब्बत दोनों का जिक्र रहता था। कुछ अल्फाज थे जो दर्द से भरे थे फिर भी उनमें सुकून था। पेश हैं उनकी कुछ रचनाएं।

 

अगर शरर हैं तो भड़के जो फूल हैं तो खिले

तरह तरह की तलब तेरे रंग ए लब से है

 

अदा ए हृस्न की मासूमियत को कम कर दें

गुनाहगा ए नजर को हिजाब आता है

 

अब अपना इख्तियार है चाहे जहां चलें

रहबर से अपनी राह जुदा कर चुके हैं हम

 

आए कुछ अब्र कुछ शराब आए

इसके ब अद आए जो अजाब आए

 

ऐ जुल्म के मातो लब खोलो चुप रहने वालों चुप कब तक

कुछ हश्र तो उनसे उट्ठेगा कुछ दूर तो नाले जाएंगे

 

और क्या देखने को बाकी है

आप से दिल लगा के देख लिया

और भी दुख है जमाने में मोहब्बत के सिवा

राहतें और भी हैं वस्ल की राहत के सिवा

 

कटते भी चलो बढ़ते भी चलो बाजू भी बहुत हैं सर भी बहुत

चलते भी चलो कि अब डेरे मंजिल ही पे डाले जाएंगे

 

गर बाजी इश्क की बाजी है तो चाहो लगा दो डर कैसा

गर जीत गए तो क्या कहना हारे भी तो बाजी मात नहीं

 

गुलों में रंग भरे बाद ए नौ बहार चले

चले भी आओ कि गुलशन का कारोबार चले

 

मुझसे पहली सी मोहब्बत मेरे महबूब ना मांग

मैने समझा था कि तू है तो दरखशां हैं हयात

तेरा गम है तो गम़े दहर का झगड़ा त्याग

तेरी सूरत से है आलम में बहारों को साबात है

तेरी आंखों के सिवा दुनिया में रक्खा क्या है

तू जो मिल जाए तो तकदीर नगूं हो जाए

यूं न था मैंने फकत चाहा था यूं हो जाए

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