अध्यात्म

जानें क्यों मनाई जाती है गुरू पूर्णिमा, उसके महत्व, कविताएं और निबंध

किसी भी मनुष्य के जीवन में गुरू का विशेष महत्व होता है, और जिस तरह से साल का एक दिन किसी के लिए विशेष बनाया जाता है उसी तरह से गुरू का भी एक विशेष दिन होता है जिसे गुरू पूर्णिमा कहते हैं।

                      “गुरु गोविंद दोउ खड़े काके लागूँ पाय।

                       बलिहारी गुरु आपने गोविंद दियो बताय।।”

गुरू पूर्णिमा

कबीर जी के इस दोहे का हिंदी में अर्थ होता है कि एक जगह पर गुरू और गोविंद अर्थात भगवान दोनों एक साथ खड़े हों तो किसे प्रणाम करना चाहिए – गुरू को अथवा गोबिन्द को? ऐसी स्थिति में गुरू के श्रीचरणों में शीश झुकाना उत्तम है जिनके कृपा रूपी प्रसाद से गोविन्द का दर्शन करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ।

इस दोहे के अर्थ को आसान भाषा में समझा जाए तो इसका अर्थ होता है कि गुरू ईश्वर का ऐसा रूप है जो आपको अज्ञान के अंधेरे से निकालकर ज्ञान की ओर ले जाता है। उसी के बताए गए मार्ग और दिशा निर्देशन से ही आपको गोविंद यानी भगवान के दर्शन करने का लाभ प्राप्त हआ है, इसलिए गुरू आपके लिए सर्वोपरी है।

गुरू पूर्णिमा

बात भारत की करें तो यहां पर हजारों सालों गुरु-शिष्य परंपरा चलती आ रही है। भारतीय संस्कृति में गुरू वो इंसान होता है जो अपने सूक्ष्म ज्ञान को अटूट विश्वास और पूर्ण समर्पण के साथ अपने शिष्यों तक पहुंचाता है।

गुरू शब्द का अर्थ- इस शब्द में गु का अर्थ होता है अंधकार या अज्ञानता और रु का का अर्थ- उसका निरोधक। अर्थात गुरू शब्द का अर्थ हुआ जो अज्ञानता को दूर करें, और अंधकार से प्रकाश की ओर ले जाए।

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कब और क्यों मनाई जाती है गुरू पूर्णिमा

गुरू पूर्णिमा

हर साल आषाढ़ माष की पूर्णिमा को गुरू पूर्णिमा के रूप में मनाया जाता है। ऐसा माना जाता है कि आषाढ़ पू्र्णिमा के दिन ही गुरू वेद व्यास का जन्म हुआ था और उन्हीं के सम्मान में आषाढ़ मास की पूर्णिमा को गुरु पूर्णिमा के रूप में मनाया जाता है। बता दें कि व्यास जी महाभाऱत के ऱचयिता होने के साथ संस्कृत के प्रकंड विद्वान भी थे, उन्होनें ही चारों वेदों की भी रचना की थी। इस कारण उनका एक नाम वेद व्यास पड़ा। उन्हें आदिगुरु कहा जाता है और उनके सम्मान में गुरु पूर्णिमा को व्यास पूर्णिमा नाम से भी जाना जाता है। भक्तिकाल के संत घीसादास का भी जन्म इसी दिन हुआ था वे कबीरदास के शिष्य थे।

बता दें कि गुरू पूर्णिमा वर्षा ऋतु के आरम्भ में आती है। इस दिन से चार महीने तक परिव्राजक साधु-सन्त एक ही स्थान पर रहकर ज्ञान की गंगा बहाते हैं। ये चार महीने मौसम की दृष्टि से भी सबसे अनुकूल होते हैं। इन चार महीनों में न अधिक गर्मी होती है और न अधिक सर्दी। इसलिए अध्ययन के लिए चार महीने उपयुक्त माने जाते हैं।

आषाढ़ की पूर्णिमा को ही क्यों मनाई जाती है गुरु पूर्णिमा

बता दें कि आषाढ़ मास में आने वाली पूर्णिमा में वर्षा ऋतू होने के कारण आकाश बादल से घिरे रहते हैं, जिससे चंद्रमा के दर्शन भी नहीं हो पाते। तो ऐमें में सवाल उठता है कि बिना चंद्रमा कैसी पूर्णिमा। क्योंकि पूर्णिमा में चंद्रमा की चंचल किरणें पूरे संसार को उजाले से भर देती हैं। लेकिन आषाढ महीने में तो चंद्रमा के दर्शन भी दुर्लभ हो जाते हैं।

आषाढ़ की पूर्णिमा को चुनने के पीछे एक गहरा अर्थ है। और अर्थ यह है कि गुरु पूर्णिमा के चंद्रमा की तरह हैं जो पूर्ण प्रकाशमान हैं और शिष्य आषाढ़ के बादलों की तरह है तो अंधेरे में घिरा हुआ है। यहां पर शिष्य को अंधेरे बादल माना जाता है और गुरू को वो चांद जो अंधेरे में भी कीर्तीमान है और अंधेरे से घिरे वातावरण में भी प्रकाश जगा सके, तब ही गुरु पद की श्रेष्ठता है। इसलिए आषाढ़ की पूर्णिमा का महत्व है!

गुरु पुर्णिमा पर्व का महत्व

बच्चे को जन्म भले ही मां बाप देते हैं, लेकिन उसको जीवन का अर्थ और संसार में रहने और जीने का अर्थ गुरू ही समझाता है। इसलिए गुरू को ब्रह्म भी कहा गया है। जिस प्रकार ब्रह्मा जी जीव का सर्जन करते हैं ठीक उसी प्रकार गुरू भी शिष्य का सर्जन करता है।

मनुष्य के जीवन में गुरू और शिक्षक के महत्व को आगे आने वाले समय में बताने के लिए यब पर्व आदर्श है। मनुष्य की आत्मा ईश्वर रूपी सत्य को जानने के लिए बेचैन रहती है और यह ईश्वर को जानना वर्तमान शरीरधारी पूर्ण गुरु के मिले बिना संभव नहीं है। इसलिए गुरू का महत्व मनुष्य के जीवन में इतना ज्यादा होता है।

गुरु पूर्णिमा के दिन बहुत से लोग अपने दिवंगत गुरु अथवा ब्रह्मलीन संतों के चिता या उनकी पादुका का विधिवत पूजन करते हैं। गुरु का आशीर्वाद सबके लिए कल्याणकारी व ज्ञानवर्द्धक होता है, इसलिए इस दिन गुरु पूजन के उपरांत गुरु का आशीर्वाद प्राप्त करना चाहिए। सिख धर्म में इस पर्व का एक विशेष महत्व होता है क्योंकि सिख इतिहास में उनके दस गुरुओं का बेहद महत्व रहा है।

गुरू पूर्णिमा पूजन विधि

शास्त्रों में गुरु पूर्णिमा के दिन गुरु की पूजा करने के लिए एक विधि बताई गई है जिसके अनुसार आपको सबसे पहले सुबर उठकर स्नान करने के बाद भगवान विष्णु, शिवजी की पूजा करनी चाहिए जिसके पश्चात गुरु बृहस्पति, महर्षि वेदव्यास की पूजा करनी चाहिए और उसके बाद आपने जिसे अपना गुरू माना है उसकी पूजा करनी चाहिए। गुरु को फूलों की माला पहनाकर उनको मिठाई, नए वस्त्र एवं धन देकर उनसे आशीर्वाद ग्रहण करना चाहिए।

गुरू पूर्णिमा पर निबंध

गुरू पूर्णिमा का पर्व पूरे देश मनाया जाता है यह एक प्रसिद्ध भारतीय पर्व है। इसे हिंदू एवं बौद्ध पूर्ण हर्षोल्लास के साथ मनाते हैं। यह पर्व आषाढ़  माह की पूर्णिमा को मनाया जाता है। गुरू पूर्णिमा गुरु के प्रति श्रद्धा व समर्पण का पर्व है। यह पर्व गुरु के नमन एवं सम्मान का पर्व है। मान्यता है कि इस दिन गुरु का पूजन करने से गुरु की दीक्षा का पूरा फल उनके शिष्यों को मिलता है।

मनुष्य के भावी जीवन का निर्माण गुरू द्वारा ही होता है, सच बात तो यह है ईश्ववर के साक्षात्कार के लिए मनुष्य चाहे कितने भी अध्यात्मिक ग्रंथ पढ़ ले, लेकिन उसे जब तक गुरु का सानिध्य नही मिलेगा तब तक उसको वह ज्ञान कभी नहीं मिलेगा तब तक वह इस संसार का रहस्य समझ नहीं पायेगा। इसके लिये यह भी शर्त है कि गुरु को त्यागी और निष्कामी होना चाहिये।

गुरू शब्द का अर्थ- ‘गु’ का अर्थ होता है अंधकार (अज्ञान) एवं ‘रु’ का अर्थ होता है प्रकाश (ज्ञान)। गुरु हमें अज्ञान रूपी अंधकार से ज्ञान रूपी प्रकाश की ओर ले जाते हैं।
गुरु पूर्णिमा के अवसर पर गुरुओं का सम्मान किया जाता है। इस पर्व पर विभिन्न क्षेत्रों में अपना महत्वपूर्ण योगदान देने वाले विभूतियों को सम्मानित किया जाता है। सम्मानित लोगों में साहित्य, संगीत, नाट्य विद्या, चित्रकला आदि क्षेत्रों के लोग भी शामिल होते हैं। कई जगहों पर लोग मिलकर कथा, कीर्तन एवं भंडारे का आयोजन भी करते हैं। इस दिन गुरु के नाम पर दान-पुण्य करने का भी विशेष प्राविधान है।

दूसरी बात यह कि आप जिसे गुरू मानते हों वो कोई आश्रम वगैरह ही चलाता हो। अगर कोई व्यक्ति आश्रम ना भी चलाता हो लेकिन अगर उसके पास ज्ञान है तो वह अपने शिष्य की सहायता कर सकता है। यह जरूरी नही है कि गुरु सन्यासी हो, अगर वह गृहस्थ भी हो तो उसमें अपने त्याग का भाव होना चाहिये। त्याग का अर्थ संसार का त्याग नहीं बल्कि अपने स्वाभाविक तथा नित्य कर्मों में लिप्त रहते हुए विषयों में आसक्ति रहित होने से है।

गुरू पूर्णिमा पर कविताएं और दोहे

गुरू पूर्णिमा

गुरु बिना ज्ञान कहां,
उसके ज्ञान का आदि न अंत यहां।
गुरु ने दी शिक्षा जहां,
उठी शिष्टाचार की मूरत वहां।

अपने संसार से तुम्हारा परिचय कराया,
उसने तुम्हें भले-बुरे का आभास कराया।
अथाह संसार में तुम्हें अस्तित्व दिलाया,
दोष निकालकर सुदृढ़ व्यक्तित्व बनाया।

अपनी शिक्षा के तेज से,
तुम्हें आभा मंडित कर दिया।
अपने ज्ञान के वेग से,
तुम्हारे उपवन को पुष्पित कर दिया।

जिसने बनाया तुम्हें ईश्वर,
गुरु का करो सदा आदर।
जिसमें स्वयं है परमेश्वर,
उस गुरु को मेरा प्रणाम सादर।

 

गुरू पूर्णिमा  पर कविताएं

गुरू के बिना ज्ञान नहीं

ज्ञान के बिना कोई महान नहीं

भटक जाता है जब इंसान

तब गुरू ही देता है ज्ञान।

ईश्वर के बाद अगर कोई है

तो वो गुरू है

दुनिया से वो वाकिफ जो कराता है

वो गुरू है

हमें अच्छा इंसान जो बनाता है

वो गुरू है

बिना गुरू के जिंदगी आसान नहीं

हमारी कमियों को जो बताता है

वो गुरू है

हमें इंसानियत जो सिखाता है

वो गुरू है

हमें जो हीरे की तरह तराश दे

वो गुरू है

हमारे अंदर एक विश्वास जगा दें

वो गुरू है

जिसके पास नहीं है गुरू

समझ लेना की वो धनवान नहीं।।

गुरू पूर्णिमा  पर शायरी

तुम गुरू पर ध्यान दो, गुरू तुम्हें ज्ञान देगा,

तुम गुरूको सम्मान दो, गुरू ऊंची उड़ान देगा।।

वो नव जीवन देता सबको, नई शक्ति का संचार करें,

जो झुक जाए उसके आगे, उसका ही गुरू उद्धार करें।।

वो नींव भांति दबा रहे, खड़ी कर देता है मिसाल नई,

ले शिक्षा शिष्य बढ़े आगे, गुरू का रहता हाल वहीं।।

मॉ-बाप ने हमको जन्म दिया, गुरू ने पढ़ना सिखाया है,

शिक्षा देकर हमतो अपने जीवन में आगे बढ़ाया है।।

गुरू पूर्णिमा पर दोहे

1.                    ” गुरू गोविन्द दोऊ खड़े, काके लागूं पांय।
                     बलिहारी गुरू अपने गोविन्द दियो बताय।।”

कबीर के दोहे का हिंदी में अर्थ: गुरू और गोबिंद (भगवान) एक साथ खड़े हों तो किसे प्रणाम करना चाहिए – गुरू को अथवा गोबिन्द को? ऐसी स्थिति में गुरू के श्रीचरणों में शीश झुकाना उत्तम है जिनके कृपा रूपी प्रसाद से गोविन्द का दर्शन करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ।

 

2.                          ” गुरू बिन ज्ञान न उपजै, गुरू बिन मिलै न मोष।
                             गुरू बिन लखै न सत्य को गुरू बिन मिटै न दोष।।”

कबीर के दोहे का हिंदी में अर्थ: कबीर दास जी कहते हैं – हे सांसरिक प्राणियों। बिना गुरू के ज्ञान का मिलना असम्भव है। तब तक मनुष्य अज्ञान रूपी अंधकार में भटकता हुआ मायारूपी सांसारिक बन्धनों मे जकड़ा रहता है जब तक कि गुरू की कृपा प्राप्त नहीं होती। मोक्ष रूपी मार्ग दिखलाने वाले गुरू हैं। बिना गुरू के सत्य एवं असत्य का ज्ञान नहीं होता। उचित और अनुचित के भेद का ज्ञान नहीं होता फिर मोक्ष कैसे प्राप्त होगा? अतः गुरू की शरण में जाओ। गुरू ही सच्ची राह दिखाएंगे।

3.                            “गुरू पारस को अन्तरो, जानत हैं सब संत।
                               वह लोहा कंचन करे, ये करि लेय महंत।।”

कबीर के दोहे का हिंदी में अर्थ: गुरू और पारस के अन्तर को सभी ज्ञानी पुरूष जानते हैं। पारस मणि के विषय जग विख्यात हैं कि उसके स्पर्श से लोहा सोने का बन जाता है किन्तु गुरू भी इतने महान हैं कि अपने गुण ज्ञान में ढालकर शिष्य को अपने जैसा ही महान बना लेते हैं।

4.                        “जब मैं था तब गुरू नहीं, अब गुरू हैं मैं नाहिं।
                             प्रेम गली अति सांकरी, तामें दो न समांहि।।”

कबीर के दोहे का हिंदी में अर्थ: जब अंहकार रूपी मैं मेरे अन्दर समाया हुआ था तब मुझे गुरू नहीं मिले थे, अब गुरू मिल गये और उनका प्रेम रस प्राप्त होते ही मेरा अंहकार नष्ट हो गया। प्रेम की गली इतनी संकरी है कि इसमें एक साथ दो नहीं समा सकते अर्थात् गुरू के रहते हुए अंहकार नहीं उत्पन्न हो सकता।

गुरु पूर्णिमा पर ये लेख आप को कैसे लगा अपनी राय दें , इस लेख पर हम ने आप को बताया है गुरु पूर्णिमा पर निबंध, गुरु पूर्णिमा पर शायरी, गुरु पूर्णिमा का महत्व और क्यों मनाया जाता है गुरु पूर्णिमा, साथ में आप ने पढ़ा कबीर के दोहे और गुरु पर शायरी और कवितायें,  गुरु की पूजा करने के लिए एक विधि. गुरु पूर्णिमा पर गुरु की पूजा करना ही सर्वोपरि है

 

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