Spiritual

देवयानी, ययाति, शर्मिष्ठा, पुरु : प्रतिष्ठा की लड़ाई लड़ने वाली दो लोगों की मित्रता की ये कहानी

प्रतिष्ठा की लड़ाई लड़ने वाली दो लोगों की मित्रता की ये कहानी एक चेतावनी है जहां पर ये प्रतिस्पर्धा इनकी योग्यता से नहीं होती बल्कि इनके माता-पिता के दर्जे के प्रतिबिंब को दर्शाती है। (Story of Devayani & Sharmishtha)

Story of Devayani, Yayati, Sharmishtha, Puru

असुर गुरु शुक्राचार्य (Shukracharya) की बेटी देवयानी(Devayani) की मित्रता असुर राजा वृषपर्वा(Vrishaparva) की बेटी शर्मिष्ठा से थी।  शर्मिष्ठा अति सुन्दर राजपुत्री थी, तो देवयानी असुरों के महा गुरु शुक्राचार्य की पुत्री थी। दोनों एक दूसरे से सुंदरता के मामले में कम नहीं थी। वे सब की सब उस उद्यान के एक जलाशय में, अपने वस्त्र उतार कर स्नान करने लगीं। दोनों सहेलियां एक बार नहाने के लिए नदी किनारे गईं जहां हवा के झोके से इनके वस्त्र किनारे से दूर चले गए। शर्मिष्ठा (Sharmishtha) ने गलती से या जानबूझकर देवयानी के कपड़े पहने लिए क्योंकि उसके कपड़े वहां से गायब हो गए थे।

देवयानी अति क्रोधित होकर शर्मिष्ठा से बोली, ‘रे शर्मिष्ठा! एक असुर पुत्री होकर तूने ब्राह्मण कन्या का वस्त्र धारण करने का साहस कैसे किया? तूने मेरे वस्त्र धारण करके मेरा अपमान किया है।’ देवयानी के अपशब्दों को सुनकर शर्मिष्ठा अपने अपमान से तिलमिला गई और देवयानी के वस्त्र छीन कर उसे एक कुएं में धकेल दिया।

ययाती(Yayati) पास से ही गुजर रहा था और अपनी प्यास बुझाने के लिए वे कुएं के निकट गए तभी उन्होंने उस कुएं में वस्त्रहीन देवयानी को देखा। जल्दी से उन्होंने देवयानी की देह को ढंकने के लिए अपने वस्त्र दिए और अपना दायां हाथ देकर देवयानी(Devayani) को कुएं से बाहर निकाला।

Story of Devayani, Yayati, Sharmishtha, Puru

ययाति-देवयानी का विवाह (Yayati Devayani Marriage)

देवयानी (Devayani) ने कहा कि ययाति(Yayati) राजा ने उसे दाहिना हाथ पेश किया है और इस लिहाज से दोनों शादीशुदा माने जाएंगे।  देवयानी उसी वक़्त उन्हें पति के रूप में वरण करती है और अपनी यह इच्छा ययाति को बताती है। ययाति देवयानी से कहते है कि ‘में एक क्षत्रिय राजा हूँ और बिना पिता की आज्ञा के तुम्हारे साथ विवाह नही कर पाऊंगा’। तब देवयानी अपने पिता शुक्राचार्य को बुलावाने के लिये धाय को भेजती है । समाचार सुनते ही शुक्राचार्य ने वहाँ पहुंचते हैं। शुक्राचार्य को आया देख ययाति ने उन्‍हें प्रणाम किया और हाथ जोड़कर विनम्र भाव से खड़े हो गये। देवयानी बोली- तात! ये नहुषपुत्र राजा ययाति हैं। इन्‍होंने संकट के समय मेरा हाथ पकड़ा था। आप मुझे इन्‍हीं की सेवा में समर्पित कर दें। मैं इस जगत् में इनके सिवा दूसरे किसी पति का वरण नहीं करुंगी। शुक्राचार्य ने कहा- वीर नहुष नन्‍दन! मेरी इस लाडली पुत्री ने तुम्‍हें पति रुप में वरण किया है; अत: मेरी इस दी हुई कन्‍या को तुम अपनी पटरानी के रूप में ग्रहण करो।

देवयानी(Devayani) ने शर्मिष्ठा(Sharmishta) के दुर्व्यवहार के बारे में अपने पिता को बतलाया और कहा कि उसे बदला लेना है। शुक्राचार्य (Shukracharya) ने वृषपर्वा(Virshaparva) को धमकाते हुए कहा कि वो अपने पद से इस्तीफा दे और असुरो को पुनरुत्थान विज्ञान के लाभ से भी वंचित कर देंगे जबतक कि शर्मिष्ठा देवयानी की दासी नहीं बन जाती।

Story of Devayani, Yayati, Sharmishtha, Puru

शुक्राचार्य ययाति से कहते हैं की वृषपर्वा की पुत्री  शर्मिष्ठा भी तुम्‍हें समर्पित है। इसका सदा आदर करना, किंतु इसे अपनी सेज पर कभी न बुलाना। तुम्‍हारा कल्‍याण हो। इस शर्मिष्ठा को एकान्‍त में बुलाकर न तो इससे बात करना और न इसके शरीर का स्‍पर्श ही करना। अब तुम विवाह करके देवयानी को अपनी पत्नी बनाओ ।  तो देवयानी की शादी ययाति (Devayani Marriage with Yayati) से हो जाती है और शर्मिष्ठा को दहेज के रुप में देवयानी की दासी बनाकर भेज दिया जाता है।

ययाति से देवयानी को पुत्र-प्राप्ति; ययाति और शर्मिष्ठा का एकान्‍त मिलन और उनसे एक पुत्र का जन्‍म.

ययाति की राजधानी महेन्‍द्रपुरी (अमरावती) के समान थी। उन्‍होंने वहाँ आकर देवयानी को तो अन्‍त:पुर में स्‍थान दिया और उसी की अनुमति से अशोक वाटिका के समीप एक महल बनवाकर उसमें वृषपर्वा की पुत्री शर्मिष्ठा को उसकी एक हजार दासियों के साथ ठहराया और उन सबके लिये अन्‍न, वस्त्र, तथा पेय आदि की अलग-अलग व्‍यवस्‍था के शर्मिष्ठा का समुचित सत्‍कार किया। देवयानी ययाति के साथ परमरमणीय एवं मनोरम अशोक वाटिका में आती और शर्मिष्ठा के साथ वन-विहार करके उसे वहीं छोड़कर स्‍वयं राजा के साथ महल में चली जाती थी। इस तरह वह बहुत समय तक प्रसन्नापूर्वक आनन्‍द भोगती रही। ॠतुकाल आने पर सुन्‍दरी देवयानी ने गर्भधारण किया और समयानुसार प्रथम पुत्र को जन्‍म दिया। इस प्रकार युवावस्‍था को प्राप्त हुई वृषपर्वा की पुत्री शर्मिष्ठा ने अपने को रजस्‍वलावस्‍था में देखा और चिन्‍तामग्न हो गयी। स्‍नान करके शुद्ध हो समस्‍त आभूषणों से विभूषित हुई शर्मिष्ठा सुन्‍दर पुष्‍पों के गुच्‍छों से भरी अशोक-शाखा का आश्रय लिये खड़ी थी।

दर्पण में अपना मुंह देखकर उसके मन में पति के दर्शन की लालसा जाग उठी और वह शोक एवं मोह से युक्त हो इस प्रकार बोली- ‘हे अशोकवृक्ष! जिनका हृदय शोक में डूबा हुआ है, उन सबके शोक को तुम दूर करने वाले हो। इस समय मुझे प्रियतम का दर्शन कराकर अपने ही जैसे नाम वाली बना दो।’ ऐसा कहकर शर्मिष्ठा फि‍र बोली- ‘मुझे ॠतुकाल प्राप्त हो गया; किंतु अभी तक मैंने पति का वरण नहीं किया है। यह कैसी परिस्थित आ गयी। अब क्‍या करना चाहिये अथवा क्‍या करने से सुकृत (पुण्‍य) होगा। देवयानी तो पुत्रवती हो गयी; किंतु मुझे जो जवानी मिली है, वह व्‍यर्थ जा रही है। जिस प्रकार उसने पति का वरण किया है, उसी तरह मैं भी उन्‍हीं महाराज का क्‍यों न पति के रुप में वरण कर लूं। मेरे याचना करने पर राजा मुझे पुत्र रुप फल दे सकते हैं, इस बात का मुझे पूरा विश्वास है; परंतु क्‍या वे धर्मात्‍मा नरेश इस समय मुझे एकान्‍त में दर्शन देंगे?’

शर्मिष्ठा इस प्रकार का विचार कर ही रही थी कि राजा ययाति उस समय दैववश महल से बाहर निकले और अशोक वाटिका के निकट शर्मिष्ठा को देखकर ठहर गये। मनोहर हास वाली शर्मिष्ठा ने उन्‍हें एकान्‍त में अकेला देख आगे बढ़कर उनकी अगवानी की तथा हाथ जोड़कर राजा से यह बात कही। शर्मिष्ठा ने कहा- नहुषनन्‍दन! चन्‍द्रमा, इन्‍द्र, विष्‍णु, यम, वरुण अथवा आपके महल कौन किसी स्त्री की ओर दृष्टि डाल सकता है? (अतएव यहाँ मैं सर्वथा सुरक्षित हूँ) महाराज! मेरे रुप, कुल और शील कैसे हैं, यह तो आप सदा से ही जानते हैं। मैं आज आपको प्रसन्न करके यह प्रार्थना करती हूँ कि मुझे ॠतुदान दीजिये- मेरे ॠतुकाल को सफल बनाइये।

ययाति ने कहा- शर्मिष्ठे! तुम दैत्‍यराज की सुशील और निर्दोष कन्‍या हो। मैं तुम्‍हें अच्‍छी तरह जानता हूँ। तुम्‍हारे शरीर अथवा रुप में सुई की नोंक बराबर भी ऐसा स्‍थान नहीं है, जो निन्‍दा के योग्‍य हो। परंतु क्‍या करूं; जब मैंने देवयानी के साथ विवाह किया था, उस समय कविपुत्र शुक्राचार्य ने मुझसे स्‍पष्ट कहा था कि ‘वृषपर्वा की पुत्री इस शर्मिष्ठा को अपनी सेज पर न वुलाना’। शर्मिष्ठा ने कहा- राजन्! परिहास युक्त वचन असत्‍य हों तो भी वह हानिकारक नहीं होता। अपनी स्त्रियों के प्रति, विवाह के समय, प्राण संकट के समय तथा सर्वस्‍व का अपहरण होते समय यदि कभी विवश होकर असत्‍य भाषण करना पड़े तो वह दोष कारक नहीं होता। ये पांच प्रकार के असत्‍य पाप शून्‍य बताये गये हैं। महाराज! किसी निर्दोष प्राणी का प्राण बचाने के लिये गवाही देते समय किसी के पूछने पर अन्‍यथा (असत्‍य) भाषण करने वाले के यदि कोई पतित कहता है तो उसका कथन मिथ्‍या है। परंतु जहाँ अपने और दूसरे दोनों के ही प्राण बचाने का प्रसंग उपस्थित हो, वहाँ केवल अपने प्राण बचाने के लिये मिथ्‍या बोलने वाले का असत्‍य भाषण उसका नाश कर देता है।

ययाति बोले- देवि! सब प्राणियों के लिये राजा ही प्रमाण हैं। वह यदि झूठ बोलने लगे, तो उसका नाश हो जाता है। अत: अर्थ-संकट में पड़ने पर भी मैं झूठा काम नहीं कर सकता। शर्मिष्ठा ने कहा- ‘राजन्! अपना पति और सखी का पति दोनों बराबर माने गये हैं। सखी के साथ ही उसकी सेवा में रहने वाली दूसरी कन्‍याओं का भी विवाह हो जाता है। मेरी सखी ने आपको अपना पति बनाया है, अत: मैंने भी बना लिया। राजन्! महर्षि शुक्राचार्य ने देवयानी के साथ मुझे भी यह कहकर आपको समर्पित किया है कि तुम इसका भी पालन-पोषण और आदर करना। आप उनके वचन को सुवर्ण, मणि, रत्न, वस्त्र, आभूषण, गौ और भूमि आदि दान करते हैं, वह बाह्य दान कहा गया है। वह शरीर के आश्रित नहीं है। पुत्रदान और शरीर दान अत्‍यन्‍त कठिन है। नहुषनन्‍दन! शरीर दान से उपर्युक्त सब दान सम्‍पन्न हो जाता है। राजन्! जिसकी जैसी इच्‍छा होगी उस-उस पुरुष को मैं मुंहमांगी वस्‍तु दूंगा।’

ऐसा कहकर आपने नगर में जो तीनों समय दान की घोषणा करायी है, वह मेरी प्रार्थना ठुकरा देने पर झूठी सिद्ध होगी। वह सारी घोषणा ही व्‍यर्थ समझी जायगी। राजेन्‍द्र! आप कुबेर की भाँति अपनी उस घोषणा को सत्‍य कीजिये। ययाति बोले- याचकों को उनकी अभीष्‍ट वस्‍तुएं दी जायं, ऐसा मेरा व्रत है। तुम भी मुझसे अपने मनोरथ की याचना करती हो; अत: बताओ मैं तुम्‍हारा कौन-सा प्रिय कार्य करूं? शर्मिष्‍ठा ने कहा- राजन्! मुझे अधर्म से बचाइये और धर्म का पालन कराइये। मैं चाहती हूं, आपसे संतानवती होकर इस लोक में उत्तम धर्म का आचरण करूं। महाराज! तीन व्‍यक्ति धन के अधिकारी नहीं हैं- पत्नी, दास और पुत्र। ये जो धन प्राप्त करते हैं वह उसी का होता है जिसके अधिकार में ये हैं। अर्थात पत्नी के धन पर पति का , सेवक के धन पर स्‍वामी का और पुत्र के धन पर पिता का अधिकार होता है। मैं देवयानी की सेविका हूँ और वह आपके अधीन है; अत: राजन्! वह और मैं दोनो ही आपके सेवन करने योग्‍य हैं। अत: मेरा सेवन कीजिये।

शर्मिष्ठा के ऐसा कहने पर राजा ने उसकी बातों को ठीक समझा। उन्‍होंने शर्मिष्ठा का सत्‍कार किया और धर्मानुसार उसे अपनी भार्या बनाया। फिर शर्मिष्ठा के साथ समागम किया और इच्‍छानुसार कामोपभोग करके एक दूसरे का आदर-सत्‍कार करने के पश्चात दोनों जैसे आये थे वैसे ही अपने-अपने स्‍थान पर चले गये। सुन्‍दर भौंह तथा मनोहर मुस्कान वाली शर्मिष्ठा ने उस समागम में नृपश्रेष्ठ ययाति से पहले-पहल गर्भ धारण किया। जनमेजय! तदनन्‍तर समय आने पर कमल के समान नेत्रों वाली शर्मिष्ठा ने देव बालक- जैसे सुन्‍दर एक कमलनयन कुमार को उत्‍पन्न किया।

ययाति (Yayati) और शर्मिष्ठा(Sharmistha) का संवाद, ययाति से शर्मिष्ठा के पुत्र होने की बात जानकर देवयानी(Devyani) का रूठकर पिता के पास जाना, शुक्राचार्य (Shukracharya) का ययाति को बूढ़े होने का शाप देना

पवित्र मुस्कान वाली देवयानी ने जब सुना कि शर्मिष्ठा के पुत्र हुआ है, तब वह चिन्‍ता करने लगी। वह शर्मिष्ठा के पास गयी और इस प्रकार बोली। देवयानी ने कहा- ‘सुन्‍दर भौंहों वाली शर्मिष्‍ठे! तुमने कामलोलुप होकर यह कैसा पाप कर डाला?’ शर्मिष्ठा बोली- सखी! कोई धर्मात्‍मा ऋषि आये थे, जो वेदों के पारंगत विद्वान थे। मैंने उन वरदायक ऋषि से धर्मानुसार काम की याचना की। शुचिस्मिते! मैं न्‍यायविरुद्ध काम का आचरण नहीं करती। उन ऋषि से ही मुझे संतान पैदा हुई, यह तुमसे सत्‍य कहती हूँ।

देवयानी ने कहा- भीरू! यदि ऐसी बात है, तो बहुत अच्‍छा हुआ। क्‍या उन द्विज के गोत्र, नाम और कुल का कुछ परिचय मिला है? मैं उनको जानना चाहती हूँ। शर्मिष्ठा बोली- शुचिस्मिते! वे अपने तप और तेज से सूर्य की भाँति प्रकाशित हो रहे थे। उन्‍हें देखकर मुझे कुछ पूछने का साहस ही नहीं हुआ। देवयानी ने कहा- शर्मिष्‍ठे! यदि ऐसी बात है; यदि तुमने ज्‍येष्ठ और श्रेष्ठ द्विज से संतान प्राप्‍त की है तो तुम्‍हारे ऊपर मेरा क्रोध नहीं रहा।

ये दोनों आपस में इस प्रकार बातें करके हंस पड़ी। देवयानी को प्रतीत हुआ कि शर्मिष्ठा ठीक कहती है; अत: चुपचाप महल में चली गयी। राजा ययाति ने देवयानी के गर्भ से दो पुत्र उत्‍पन्न किये, जिनके नाम थे यदु और तुर्वसु (Yadu and Turvasu)। वे दोनों दूसरे इन्‍द्र और विष्‍णु की भाँति प्रतीत होते थे। उन्‍हीं राजर्षि से वृषपर्वा की पुत्री शर्मिष्ठा ने तीन पुत्रों को जन्‍म दिया, जिनके नाम थे- द्रह्यु, अनु और पुरु।

राजन्! तदनन्‍तर किसी समय पवित्र मुस्कान वाली देवयानी ययाति के साथ एकान्‍त वन में गयी। वहाँ उसने देवताओं के समान सुन्‍दर रूप वाले कुछ बालकों को निर्भय होकर क्रीड़ा करते देखा। उन्‍हें देखकर आश्चर्यचकित हो वह इस प्रकार बोली। देवयानी ने कहा- राजन्! ये देव बालकों के तुल्‍य शुभलक्षणसम्‍पन्न कुमार किसके हैं? तेज और रूप में तो ये मुझे आप ही के समान जान पड़ते हैं।

राजा से इस प्रकार पूछकर उसने उन कुमारों से प्रश्न किया। देवयानी ने पूछा- बच्चों! तुम्‍हारे कुल का क्‍या नाम है? तुम्‍हारे पिता कौन हैं? यह मुझे ठीक-ठीक बताओ। मैं तुम्‍हारे पिता का नाम सुनना चाहती हूँ। सुन्‍दरी देवयानी के इस प्रकार पूछने पर उन बालकों ने पिता का परिचय देते हुए तर्जनी अंगुली से उन्‍हीं नृपश्रेष्‍ठ ययाति को दिखा दिया और शर्मिष्ठा को अपनी माता बताया।

ऐसा कहकर वे सब बालक एक साथ राजा के समीप आ गये; परंतु उस समय देवयानी के निकट राजा ने उनका अभिनन्‍दन नहीं किया- उन्‍हें गोद में नहीं उठाया। तब वे बालक रोते हुए शर्मिष्ठा के पास चले गये। उनकी बातें सुनकर राजा ययाति लज्जित- से हो गये। उन बालकों का राजा के प्रति विशेष प्रेम देखकर देवयानी सारा रहस्‍य समझ गयी और शर्मिष्ठा से इस प्रकार बोली।

देवयानी बोली- भामिनि! तुम तो कहती थीं कि मेरे पास कोई ऋषि आया करते हैं। यह बहाना लेकर तुम राजा ययाति को ही अपने पास आने के लिये प्रोत्‍साहन देती रहीं। मैंने पहले ही कह दिया था कि तुमने कोई पाप किया है। शर्मिष्ठे! तुमने मेरे अधीन होकर भी मुझे अप्रिय लगने वाला बर्ताव क्‍यों किया? तुम फिर उसी असुर-धर्म पर उतर आयीं। मुझसे डरती भी नहीं हो?

शर्मिष्ठा बोली- मनोहर मुस्कान वाली सखी! मैंने जो ऋषि कहकर अपने स्‍वामी का परिचय दिया था, सो सत्‍य ही है। मैं न्‍याय और धर्म के अनुकूल आचरण करती हूं, अत: तुमसे नहीं डरती। जब तुमने पति का वरण किया था, उसी समय मैंने भी कर लिया। शोभने! जो सखी का स्‍वामी होता है, वही उसके अधीन रहने वाली अन्‍य अविवाहिता सखियों का भी धर्मत: पति होता है। तुम ज्‍येष्ठ हो, ब्राह्मण की पुत्री हो, अत: मेरे लिये माननीय एवं पूजनीय हो; परंतु ये राजर्षि मेरे लिये तुमसे भी अधिक पूजनीय हैं। क्‍या यह बात तुम नहीं जानतीं? शुभे! तुम्‍हारे पिता और मेरे गुरु (शुक्राचार्य जी) ने हम दानों को एक ही साथ महाराज की सेवा में समर्पित किया है। तुम्‍हारे पति और पूजनीय महाराज ययाति भी मुझे पालन करने योग्‍य मानकर मेरा पोषण करते हैं।

शर्मिष्ठा का यह वचन सुनकर देवयानी ने कहा- ‘राजन्! अब मैं यहाँ नहीं रहूंगी। आपने मेरा अत्‍यन्‍त अप्रिय किया है’। ऐसा कहकर तरुणी देवयानी आंखों में आंसू भरकर सहसा उठी और तुरंत ही शुक्राचार्य जी के पास जाने के लिये वहाँ से चल दी। यह देख उस समय राजा ययाति व्‍यथित हो गये। वे व्‍याकुल हो देवयानी की समझाते हुए उसके पीछे-पीछे गये, किंतु वह नहीं लौटी। उसकी आंखें क्रोध से लाल हो रही थीं। वह राजा से कुछ न बोलकर केवल नेत्रों से आंसू बहाये जाती थी। कुछ ही देर में वह कविपुत्र शुक्राचार्य के पास जा पहुँची। पिता को देखती ही वह प्रणाम करके उनके सामने खड़ी हो गयी।

तदनन्‍तर राजा ययाति ने भी शुक्राचार्य की वन्‍दना की। देवयानी ने कहा- पिता जी! अधर्म ने धर्म को जीत लिया। नीच की उन्नति हुई और उच्च की अवनति। वृषपर्वा की पुत्री शर्मिष्ठा मुझे लांघकर आगे बढ़ गयी। इन महाराज ययाति से ही उसके तीन पुत्र हुए हैं, किंतु तात! मुझ भाग्‍यहीना के दो ही पुत्र हुए हैं। यह मैं आपसे ठीक बता रही हूँ। भृगुश्रेष्ठ! ये महाराज धर्मज्ञ के रूप में प्रसिद्ध हैं; किंतु इन्‍होंने ही मार्यादा का उल्लंघन किया है। कविनन्‍दन! यह आपसे यथार्थ कह रही हूँ।

शुक्राचार्य ने कहा- महाराज! तुमने धर्मज्ञ होकर अधर्म को प्रिय मानकर उसका आचरण किया है। इसलिये जिसको जीतना कठिन है, वह वृद्धावस्‍था तुम्‍हें शीघ्र ही धर दबायेगी। ययाति बोले- भगवन्! दानवराज की पुत्री मुझसे ॠतुदान मांग रही थी; अत: मैंने धर्म-सम्‍मत मानकर यह कार्य किया, किसी दूसरे विचार से नहीं। ब्रह्मन्! जो पुरुष न्‍याययुक्त ॠतु की याचना करने वाली स्त्री को ॠतु दान नहीं देता, वह ब्रह्मवादी विद्वानों द्वारा भ्रूणहत्‍या करने वाला कहा जाता है। जो न्‍यायसम्‍मत कामना से युक्त गम्‍या स्त्री के द्वारा एकान्‍त में प्रार्थना करने पर उसके साथ समागम नहीं करता, वह धर्मशास्त्र में विद्वानों द्वारा गर्भ की हत्‍या करने वाला बताया जाता है।

ब्रह्मन्! मेरा यह व्रत है कि मुझसे कोई जो भी वस्‍तु मांगे, उसे वह अवश्‍य दे दूंगा। आपके ही द्वारा मुझे सौंपी हुई शर्मिष्ठा इस जगत् में दूसरे किसी पुरुष को अपना पति बनाना नहीं चाहती थी। अत: उसकी इच्‍छा पूर्ण करना धर्म समझकर मैंने वैसा किया है। आप इसके लिये मुझे क्षमा करें। भृगुश्रेष्ठ! इन्‍हीं सब कारणों का विचार करके अधर्म के भय से उद्विग्न हो मैं शर्मिष्ठा के पास गया था।

शुक्राचार्य ने कहा- राजन्! तुम्‍हें इस विषय में मेरे आदेश की भी प्रतीक्षा करनी चाहिये थी; क्‍योंकि तुम मेरे अधीन हो। नहुषनन्‍दन! धर्म में मिथ्‍या आचरण करने वाले पुरुष को चोरी का पाप लगता है। वैशमपायन जी कहते हैं- क्रोध में भरे हुए शुक्राचार्य के शाप देने पर नहुषपुत्र राजा ययाति उसी समय पूर्वावस्‍था (यौवन) का परित्‍याग करके तत्‍काल बूढ़े हो गये। ययाति बोले- भृगुश्रेष्ठ! मैं देवयानी के साथ युवावस्‍था में रहकर तृप्त नहीं हो सका हूं; अत: ब्रह्मन्! मुझ पर ऐसी कृपा कीजिये, जिससे यह बुढ़ापा मेरे शरीर में प्रवेश न करे।

शुक्राचार्य जी ने कहा- भूमिपाल! मैं झूठ नहीं बोलता; बूढे़ तो तुम हो ही गये; किंतु तुम्‍हें इतनी सुविधा देता हूँ कि यदि चाहो तो किसी दूसरे से जवानी लेकर इस बुढ़ापा को उसके शरीर में डाल सकते हो। ययाति बोले- ब्रह्मन्! मेरा जो पुत्र अपनी युवावस्‍था मुझे दे वही पुण्‍य और कीर्ति का भागी होने के साथ ही मेरे राज्‍य का भी भागी हो। आप इसका अनुमोदन करें। शुक्राचार्य ने कहा- नहुषनन्‍दन! तुम भक्तिभाव से मेरा चिन्‍तन करके अपनी वृद्धावस्‍था का इच्‍छानुसार दूसरे के शरीर में संचार कर सकोगे। उस दशा में तुम्‍हें पाप भी नहीं लगेगा। जो पुत्र तुम्‍हें (प्रसन्नतापूर्वक) अपनी युवावस्‍था देगा, वही राजा होगा, साथ ही दीर्घायु, यशस्‍वी तथा अनेक सन्‍तानों से युक्त होगा

ययाति का अपने पुत्र यदु, तुर्वसु, द्रुह्यु और अनु से अपनी युवावस्‍था देकर वृद्धावस्‍था लेने के लिये आग्रह और उनके अस्‍वीकार करने पर उन्‍हें शाप देना, फिर अपने पुत्र पुरु को जरावस्‍था देकर उनकी युवावस्‍था लेना तथा उन्‍हें वर प्रदान करना

राजा ययाति बुढ़ापा लेकर वहाँ से अपने नगर में आये और अपने ज्‍येष्ठ एवं श्रेष्ठ पुत्र यदु से इस प्रकार बोले। ययाति ने कहा- ‘तात! कविपुत्र शुक्राचार्य के शाप से मुझे बुढ़ापे ने घेर लिया; मेरे शरीर में झुर्रियां पड़ गयीं और बाल सफेद हो गये; किंतु मैं अभी जवानी के भोगों से तृप्त नहीं हुआ हूँ। यदो! तुम बुढ़ापे के साथ मेरे दोष को ले लो और मैं तुम्‍हारी जवानी के द्वारा विषयों का उपभोग करूं। एक हजार वर्ष पूरे होने पर मैं पुन: तुम्‍हारी जवानी देकर बुढ़ापे के साथ अपना दोष वापस ले लूंगा।

यदु बोले-राजन्! बुढ़ापे में खाने-पीने से अनेक दोष प्रकट होते हैं; अत: मैं आपकी वृद्धावस्‍था नहीं लूंगा, यही मेरा निश्चित विचार है। महाराज! मैं उस बुढ़ापे को लेने की इच्‍छा नहीं करता, जिसके आने पर दाढ़ी-मूंछ के बाल सफेद हो जाते हैं; जीवन का आनन्‍द चला जाता है। वृद्धावस्‍था एकदम शिथिल कर देती है। सारे शरीर में झुर्रियां पड़ जाती हैं और मनुष्‍य इतना दुर्बल तथा कृशकाय हो जाता है कि उसकी ओर देखते नहीं बनता। बुढ़ापे में काम-काज करने की शक्ति नहीं रहती, युवतियां तथा जीविका पाने वाले सेवक भी तिरस्‍कार करते हैं; अत: मैं वृद्धावस्‍था नहीं लेना चा‍हता। धर्मज्ञ नरेश्वर! आपके बहुत-से पुत्र हैं, जो आपको मुझसे से भी अधिक प्रिय हैं; अत: बुढ़ापा लेने के लिये किसी दूसरे पुत्र को चुन लीजिये।

ययाति ने कहा- तात! मेरे हृदय से उत्‍पन्न (औरस पुत्र) होकर भी मुझे अपनी युवावस्‍था नहीं देते; इसलिये तुम्‍हारी संतान राज्‍य की अधिकारिणी नहीं होगी। (अब उन्‍होंने तुर्वसु को बुलाकर कहा-) तुर्वसो! बुढ़ापे के साथ मेरा दोष ले लो। बेटा! मैं तुम्‍हारी जवानी से विषयों का उपभोग करूंगा। एक हजार वर्ष पूर्ण होने पर मैं तुम्‍हें जवानी लौटा दूंगा और बुढ़ापे सहित अपने दोष को वापस ले लूंगा।

तुर्वसु बोले- तात! काम-भोग का नाश करने वाली वृद्धावस्‍था मुझे नहीं चाहिये। वह बल तथा रूप का अन्‍त कर देती है और बुद्धि एवं प्राणशक्ति का भी नाश करने वाली है। ययाति ने कहा- तुर्वसो! तू मरे हृदय से उत्‍पन्न होकर भी मुझे अपनी युवावस्‍था नहीं देता है, इसलिये तेरी संतति नष्ट हो जायेगी। मूढ़! जिनके आचार और धर्म वर्णसंकरों के समान हैं, जो प्रतिलोम संकर जातियों में गिने जाते हैं तथा जो कच्चा मांस खाने वाले एवं चाण्‍डाल आदि की श्रेणी में हैं, ऐसे लोगों का तू राजा होगा। जो गुरु पत्नियों में आसक्त हैं, जो पशु-पक्षी आदि का सा आचरण करने वाले हैं तथा जिनके सारे आचार-विचार भी पशुओं के समान हैं, तू उन पाप आत्‍मा मलेच्‍छों का राजा होगा।

जनमेजय! राजा ययाति ने इस प्रकार अपने पुत्र तुर्वसु को शाप देकर शर्मिष्ठा के पुत्र द्रुह्यु से यह बात कही। ययाति ने कहा- द्रुह्यो! कान्ति तथा रूप का नाश करने वाली यह वृद्धावस्‍था तुम ले लो और एक हजार वर्षों के लिये अपनी जवानी मुझे दे दो। हजार वर्ष पूर्ण हो जाने पर मैं पुन: तुम्‍हारी जवानी तुम्‍हें दे दूंगा और बुढ़ापे के साथ अपना दोष फिर ले लूंगा।

राजा ययाति का विषय-सेवन और वैराग्‍य तथा पुरु का राज्‍याभिषेक करके वन में जाना

नहुष के पुत्र नृपश्रेष्ठ ययाति ने पुरु की युवावस्‍था से अत्‍यन्‍त प्रसन्न होकर अभीष्ट विषयभोगों का सेवन आरम्‍भ किया। राजेन्‍द्र! उनकी जैसी कामना होती, जैसा उत्‍साह होता और जैसा समय होता, उसके अनुसार वे सुखपूर्वक धर्मानुकूल भोगों का उपभोग करते थे। वास्‍तव में उसके योग्‍य वे ही थे। उन्‍होंने यज्ञों द्वारा देवताओं को, श्राद्धों से पितरों को, इच्‍छा के अनुसार अनुग्रह करके दीन-दुखियों को और मुंह मांगी भोग्‍य वस्‍तुऐं देकर श्रेष्ठ ब्राह्मणों को तृप्त कि‍या। वे अतिथियों को अन्न और जल देकर, वैश्‍यों को उनके धन-वैभव की रक्षा करके, शूद्रों को दयाभाव से, लुटेरों को कैद करके तथा सम्‍पूर्ण प्रजा को धर्मपूर्वक संरक्षण द्वारा प्रसन्न रखते थे। इस प्रकार साक्षात् दूसरे इन्‍द्र के समान राजा ययाति ने समस्‍त प्रजा का पालन किया। वे राजा सिंह के समान पराक्रमी और नवयुवक थे। सम्‍पूर्ण विषय उनके अधीन थे और वे धर्म का विरोध न करते हुए उत्तम सुख का उपभोग करते थे। वे नरेश शुभ भोगों को प्राप्त करके पहले तो तृप्त एवं आनन्दित होते थे; परंतु जब यह बात ध्‍यान में आती कि ये हजार वर्ष भी पूरे हो जायेंगे, तब उन्‍हें बड़ा खेद होता था। कालतत्त्व को जानने वाले पराक्रमी राजा ययाति एक-एक कला और काष्ठा की गिनती करके एक हजार वर्ष के समय की अवधि का स्‍मरण रखते थे।

राजर्षि ययाति हजार वर्षों की जवानी पाकर नन्‍दनवन में विश्वाची अप्‍सारा के साथ रमण करते और प्रकाशित होते थे। वे अलकापुरी में तथा उत्तर दिशावर्ती मेरु शिखर पर भी इच्‍छानुसार विहार करते थे। धर्मात्‍मा नरेश ने जब देखा कि समय अब पूरा हो गया, तब वे अपने पुत्र पुरु के पास आकर बोले- ‘शत्रुदमन पुत्र! मैंने तुम्‍हारी जवानी के द्वारा अपनी रुचि, उत्‍साह और समय के अनुसार विषयों का सेवन किया है। परंतु विषयों की कामना उन विषयों के उपभोग से कभी शान्‍त नहीं होती; अपितु घी की आहुति पड़ने से अग्नि की भाँति वह अधिकाधिक बढ़ती ही जाती है। इस पृथ्‍वी पर जितने भी धान, जौ, स्‍वर्ण, पशु और स्त्रियां हैं, वे सब एक मनुष्‍य के लिये भी पर्याप्त नहीं हैं। अत: तृष्‍णा का त्‍यागकर देना चाहिये। खोटी बुद्धि वाले लोगों के लिये जिसका त्‍याग करना अत्‍यन्‍त कठिन है, जो मनुष्‍य के बूढ़े होने पर भी स्‍वयं बूढ़ी नहीं होती तथा जो एक प्राणान्‍तक रोग है, उस तृष्‍णा को त्‍याग देने वाले पुरुष को ही सुख मिलता है। देखो, विषय भोग में आसक्तचित्त हुए मेरे एक हजार वर्ष बीत गये, तो भी प्रतिदिन उन विषयों के लिये ही तृष्‍णा पैदा होती है। अत: मैं इस तृष्‍णा को छोड़कर परब्रह्म परमात्‍मा में मन लगा इन्‍द्र और ममता से रहित हो वन में मृगों के साथ विचरूंगा। पुरु! तुम्‍हारा भला हो, मैं प्रसन्न हूँ। अपनी यह जवानी ले लो। साथ ही यह राज्‍य भी अपने अधिकार में कर लो; क्‍योंकि तुम मेरा प्रिय करने वाले पुत्र हो’।  उस समय नहुषनन्‍दन राजा ययाति ने अपनी वृद्धावस्‍था वापस ले ली और पुरु ने पुन: अपनी युवावस्‍था प्राप्त कर ली।. (Story of Mahabharat – Adi Parva)

Story of Devayani, Yayati, Sharmishtha, Puru

 

Back to top button
Slot Online https://kemenpppa.com/ situs toto toto slot slot toto toto togel data macau situs toto slot gacor pengeluaran macau slot pulsa 5000 slot gacor slot gopay slot777 amavi5d sesetoto mixparlay onictoto situs toto toto slot sontogel slot gacor malam ini toto slot toto slot toto slot toto slot Situs Toto togel macau pengeluaran sdy situs toto situs toto Situs Toto Situs Toto situs toto Situs toto titi4d Situs Slot Toto Slot https://www.dgsmartmom.com/ slot mahjong Situs Toto toto slot titi4d Situs Slot titi4d Situs Toto toto slot slot toto titi4d kientoto https://wonderfulgraffiti.com/ toto slot Toto Slot Slot Togel situs toto toto togel situs toto toto togel slot online toto togel sesetoto toto slot toto slot toto togel toto slot toto togel toto slot situs toto toto togel licin4d karatetoto karatetoto mma128 Winsortoto toto togel ilmutoto https://pleasureamsterdamescort.com/ slot gacor terbaru slot gacor situs toto slot gacor situs toto toto slot situs toto toto situs toto toto slot PITUNGTOTO slot thailand slot gacor toto slot slot toto togel situs toto situs toto toto slot toto slot toto slot situs togel slot 4d toto slot toto togel toto togel situs toto situs toto situs toto ayamtoto kientoto toto 4d https://www.sierradesanfrancisco.inah.gob.mx/btoto/ dvtoto pucuk4d slot gacor japan168 batakslot slot gacor toto macau slot gacor toto slot batak5d batak5d batak5d slot gacor kari4d mekar99 sulebet mekar99 togel900 https://iwcc-ciwc.org/ slot gacor togel900 togel900 sulebet toto 4d Slot demo toto togel toto slot licin4d agen bola terpercaya vegas969 4d situs toto toto slot pascol4d slot gacor slot gacor slot88 slot gacor toto togel slot thailand toto togel situs toto situs toto RP888 slot gacor ayamtoto situs toto terpercaya toto togel slot juara228 toto togel venom55 angker4d mayorqq kiostoto taruhanbola taruhanbola Slot Pulsa Indosat https://old.ccmcc.edu naruto88 leon188 login mpomax situs togel terpercaya bandar togel kientoto venom55 paten188 slot gacor link slot gacor dentoto situs togel toto slot https://extrastaruk.com/ Wikatogel toto pascol4d slot scatter hitam kapakbet sulebet https://www.customsclearance.net/ toto slot pascol4d toto slot babeh188 naruto88 https://extrastaruk.com/ 4d babeh188 slot deposit dana Slot pulsa indosat hoki69 toto slot toto slot toto macau situs toto toto togel toto slot slot gacor