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आडंबरों को पसंद नहीं करते थे कबीरदास, उनके दोहों से सीखे जीवन को बेहतर बनाने का तरीका

संत कबीरदास अपने जमाने के महान कवि और लेखक थे। उनका जन्म 24 जून सन 1455 में हुआ था। यह दिन कबीर जयंती के रूप में भी मनाया जाता है। कबीरदास के नाम पर कबीरपंथ संप्रदाय भी प्रचलित है। संत कबीर के बारे में दिलचस्प बात ये थी कि वे आडम्बरों के सख्त खिलाफ थे। वे लोगों को एकता के सूत्र का पाठ पढ़ाते थे। वे अंधविश्वास में यकीन नहीं रखते थे। बल्कि लाइफ को प्रैक्टिकल जीना पसंद करते थे।

kabir das

कबीर दास ने 1518 में मगहर में अपनी देह त्यागी थी। इसके पीछे की वजह भी बड़ी दिलचस्प है। दरअसल मगहर को लेकर समाज में एक अंधविश्वास फैला था। कहते थे कि जो व्यक्ति मगहर में मारता है वह नरक जाता है। संत कबीर इस अंधविश्वास को खत्म करने के लिए अपने जीवन के अंतिम समय में मगहर चले गए थे। यहीं उन्होंने अपने प्राण त्यागकर लोगों को इस अंधविश्वास से मुक्ति दिलाई।

अपने जीवनकाल में संत कबीर ने कई दोहे भी लिखे थे। कबीर के दोहे काफी प्रेरणादायक होते थे। उनमें लाइफ मैनेजमेंट टिप्स भी होती थी। उनके लिखे दोहे आज के जमाने में भी आपके जीवन की कई परेशानियों को दूर कर सकते हैं। आज हम उनके द्वारा लिखे गए कुछ फ़ेमस दोहों का अर्थ और उनमें छिपे जीवन प्रबंधन सूत्रों को विस्तार से बताएंगे।

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पहला दोहा:
बुरा जो देखन मैं चला, बुरा न मिलिया कोय,
जो दिल खोजा आपना, मुझसे बुरा न कोय।

इस दोहे में संत कबीर यह कहना चाहते हैं कि इंसान अपने अंदर की बुराइयों को दूर करने की बजाय दूसरों में बुराईयां अधिक खोजता है। दोहे में कबीर ने कहा है कि मैंने इस दुनिया में बुराई खोजने की कोशिश की। लेकिन मुझे कहीं कोई बूटा नहीं मिला। लेकिन जब मैंने खुद के मन में झाँककर देखा तो मुझ से बुरा कोई नहीं था। इससे हमे सिख मिलती है कि आप लोगों को परखने की बजाय खुद का आंकलन करें तो बेहतर होगा।

दूसरा दोहा:
साधु ऐसा चाहिए, जैसा सूप सुभाय,
सार-सार को गहि रहै, थोथा देई उड़ाय।

इस दोहे का अर्थ है कि एक सज्जन इंसान को अनाज साफ करने वाले सूप की भांति होना चाहिए। मतलब ऐसा व्यक्ति जो सार्थक तत्व (अनाज) को बचा ले और निरर्थक बातें (भूसे) को उड़ा दे। आसान शब्दों में कहे तो ज्ञानी वही होता है जो काम की बातों को महत्व देता है और जीवन में आगे इस्तेमाल करता है। वहीं इधर-उधर की बातों में ज्ञानी व्यक्ति कभी नहीं उलझता है। वह इन्हें आसानी से भूला देता है।

तीसरा दोहा:
तिनका कबहुं ना निन्दिये, जो पांवन तर होय,
कबहुं उड़ी आंखिन पड़े, तो पीर घनेरी होय।

यह दोहा कहता है कि एक छोटे से तिनके को भी बेकार मत बोलो। अभी तो ये आपके पांव के नीचे दबा है, लेकिन यदि आकर आँख में घुस जाए तो बहुत पीड़ा देता है। यहाँ संत कबीर कहना चाहते हैं कि हमे छोटे बड़े में भेदभाव नहीं करना चाहिए। इंसान को उसकी जाती या धन से नहीं बल्कि कर्म से सम्मान देना चाहिए।

उम्मीद करते हैं कि आपको करीब के यह दोहे पसंद आए होंगे। यदि हाँ तो इन्हें दूसरों के साथ शेयर जरूर करें।

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