विशेष

श्रीकृष्ण ने अर्जुन को बतायी थी ये बात, किसी की तेरहवीं में जानें से पहले ज़रूर जान लें आप भी

इस पृथ्वी पर जन्म लेने वाले हर इंसान को एक ना एक दिन इस दुनिया से जाना ही है, यानी उसकी मृत्यु निश्चित है। आजतक कोई ऐसा नहीं पैदा हुआ है, जो हमेशा ही जीवित रहे। हिंदू धर्म की मान्यता के अनुसार जब कोई व्यक्ति मर जाता है तो उसकी आत्मा की शांति के लिए पूजा-पाठ की जाती है। और उसके परिजनों द्वारा मृत्यु के तेरहवें दिन मृत्यु भोज यानी तेरहवीं का आयोजन किया जाता है। अब सबसे बड़ा सवाल उठता है कि क्या किसी की तेरहवीं में जाकर भोजन ग्रहण करना ठीक होता है, या नहीं?

कहाँ से आ गया 17वाँ संस्कार:

यह सवाल अक्सर ही लोगों के मन में आता है। लोग इसके बारे में जानना चाहते हैं। कुछ लोगों को किसी की तेरहवीं में जाकर भोजन ग्रहण करने में कोई दिक़्क़त नहीं होती है, जबकि कई लोगों को किसी की तेरहवीं में जाकर खाना खाना अच्छा नहीं लगता है। हिंदू धर्म में 16 संस्कारों के बारे में बताया गया है। इसमें पहला संस्कार गर्भाधान है और आख़िरी संस्कार अंत्येष्टि है। इसके बाद कोई अन्य संस्कार नहीं होता है। किसी भी मनुष्य के जीवन में केवल 16 संस्कार ही होते हैं। अब आप भी सोचेंगे कि जब केवल 16 संस्कारों की बात की गयी है तो ये 17वाँ संस्कार कहा से आ गया?

श्रीकृष्ण ने दुर्योधन से कहा संधि करने के लिए:

आज हम आपको इसको अच्छे से समझाने के लिए महाभारत की एक कहानी के बारे में बताने जा रहे हैं। इसके बाद आप समझ जाएँगे कि किसी के मृत्युभोज में जाना अच्छा है या नहीं। भगवान श्रीकृष्ण ने स्वयं दुःख या शोक में करवाए गए भोजन को ऊर्जा का नाश करने वाला बताया है। इस कहानी के अनुसार महाभारत के युद्ध की शुरुआत होने वाली थी। महाभारत के युद्ध के समय भगवान श्रीकृष्ण ने दुर्योधन के घर जाकर उससे संधि करने के लिए कहा। श्रीकृष्ण ने दुर्योधन से युद्ध ना करने के लिए कहा। लेकिन दुर्योधन ने श्रीकृष्ण की एक बात नहीं सुनी और संधि का आग्रह ठुकरा दिया।

मन दुखी हो तो नहीं ग्रहण करना चाहिए भोजन:

इससे श्रीकृष्ण को बहुत दुःख हुआ। श्रीकृष्ण वहाँ से तुरंत निकल गए। जब श्रीकृष्ण जा रहे थे तब दुर्योधन ने उनसे भोजन ग्रहण करने का आग्रह किया। दुर्योधन की बात सुनकर श्रीकृष्ण ने कहा, “सम्प्रीति भोज्यानि आपदा भोज्यानि वा पुनै:”। इसका मतलब ही दुर्योधन जब खिलाने वाले का मन प्रसन्न हो, खाने वाले का मन प्रसन्न हो तभी भोजन ग्रहण करना चाहिए। इसके उलट जब खिलाने वाले और खाने ववाले दोनो के मन में दुःख हो तो ऐसी स्थिति में कभी भी भोजन ग्रहण नहीं करना चाहिए। महाभारत की इस कहानी को बाद में मृत्युभोज से जोड़ कर देखा गया।

किसी भी व्यक्ति के परिजन की मृत्यु के बाद उसके मन में बहुत ज़्यादा दुःख होता है। अब ऐसे में कोई कैसे ख़ुश रहकर भोज का आयोजन कर सकता है। वहीं जो लोग इस भोज में शामिल होते हैं, वो भी दुखी मन से ही शामिल होते हैं। इसलिए इस तरह के भोजन को ग्रहण करने से ऊर्जा का विनाश हो जाता है। कुछ लोगों का तो यहाँ तक कहना है कि तेरहवीं संस्कार समाज के कुछ चालाक लोगों के दिमाग़ की उपज है। महर्षि दयानंद सरस्वती, पंडित श्रीराम शर्मा, स्वामी विवेकानंद जैसे लोगों ने किसी की मृत्यु के बाद मृत्युभोज के आयोजन का जमकर विरोध भी किया था। किसी व्यक्ति की मृत्यु पर स्वादिष्ट खाना खाकर शोक मानना किसी ढोंग से कम नहीं है।

Back to top button